भोपाल । पार्षद बनने के लिये भले ही उम्मीदवार पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं, लेकिन जीतने के बाद ईमानदार जनप्रतिनिधियों के लिये यह घाटे का सौदा होगा। क्योंकि राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा निर्धारित अधिकतम व्यय सीमा के दायरे में ही यह चुनाव लड़ते हैं तो इनके आठ लाख 75 हजार रूपये चुनाव में खर्च हो जाएंगे। जबकि जीतने के बाद यह पांच साल में वेतन व भत्तों के रूप में मिलने वाली राशि के रूप में साढ़े चार लाख रूपये भी नहीं जुटा पाएंगे। दरअसल स्थानीय सरकार में प्रतिनिधित्व के लिये राज्य के 16 नगर निगमों के लिये हजारों प्रत्याशी भाग्य आजमा रहे हैं। यदि 85 वार्डों वाले राजधानी भोपाल की ही बात करें तो महापौर से इतर यहां 398 प्रत्याशी मैदान में है। यह सभी जनसंपर्क, चुनाव कार्यालय, होडिंग, बैनर, प्रचार वाहन पर लाखों रुपए खर्च कर रहे हैं। हालांकि निर्वाचन आयोग द्वारा इसके लिये व्यय सीमा 8.75  लाख तय है। बाजवूद इसके वास्तविक खर्च आगामी 3 जुलाई को हो रहे मतदान तक करीब 20 लाख से अधिक पहुंचने का अनुमान जताया जा रहा है। वहीं ईमानदार व्यक्तियों के मामले में जीतने के बाद इस खर्च के मुकाबले निगम से प्राप्त राशि की बात करें तो मानदेय व भत्तों के रूप में मिलने वाली यह राशि 5 साल में 25 प्रतिशत तक भी नहीं पहुंच पाती है। क्योंकि मानदेय, भत्ते के रूप में जितनी राशि पांच साल में पार्षद कमाते हैं, उससे चार से पांच गुना तक राशि पार्षद चुनाव में ही खर्च हो रही है। ऐसे में यह सवाल मौजू है कि आज के व्यावसायिक युग में घर की पूंजी लगाकर यह नुकसान उठाते हुए वास्तविक रूप ये समाजसेवा के लिये आ रहे हैं अथवा इसके बहाने कमाई के दूसरे साधने तलाशने का इरादा है।

20 साल वसूल पाएगा महापौर निर्वाचन व्यय
महपौर पद के प्रत्याशियों के लिये आयेाग ने व्ययसीमा 35 लाख तय की है। बावजूद इसके पूरे पांच साल में वेतन और भत्तों से यह 8.10 रूपये ही जुटा पाएंगे। जबकि निर्वाचन आयोग की व्यय सीमा के अनुसार राशि की वूसली के लिये इनकों 20 साल का समय चाहिये होगा। क्योंकि महापौर को 11 हजार रुपए मानदेय मिलता है, वहीं सत्कार के लिये ढाई हजार रुपए भता अलग से दिया जाता है। नेता प्रतिपक्ष से इतर सभापति को 9 हजार रुपए मानदेय मिलता है, जबकि सत्कार भते के रूप में 1400 रुपए मिलते हैं। टेलीफोन भते की पात्रता सभापति को नहीं मिलती। वहीं महापौर परिषद सदस्य बनने पर पार्षदों को वाहन सुविधा मिलती है। प्रतिदिन पांच लीटर डीजल और 1500 रुपए टेलीफोन भत्ता मिलता है।

कहीं यह वजह तो नहीं
भले ही वेतन व भत्तों को मिलाकर महापौर व पार्षद पूरे कार्यकाल में तय राशि से चुनाव के वास्तविक खर्च की भरपाई नहीं कर पाते हैं, लेकिन बताया जाता है जनप्रतिनिधि बनने के बाद विकास को दृष्टिगत निगम परिषद द्वारा तय निधियां मुख्य आकर्षण का केंद्र है। निगम सूत्रों की माने एक वर्ष में वह करबी 72 करोड़ रूपये खर्च करता है। इसमें अकेले महापौर फंड की राशि जहां 2-3 करोड़ होती है। वहीं अध्यक्ष मद का आंकड़ा एक करोड़ रूपये तक पहुंच जाता है। इसके अलावा विकास के लिये पार्षदों को भी 5-6 लाख रूपये वार्ड के विकास के लिये मिलते हैं। जबकि नेता प्रतिपक्ष से इतर एक एमआईसी सदस्य के लिये व्यय की राशि 25 लाख रूपये तक जाती है।